मिर्जा गालिब के उर्दू अल्फाजों से गूंजती गालिब की हवेली, शायराना अल्फाजों के शौकीन हैं तो एक बार जरूर जाएं

शायरी के अजीम शहंशाह मिर्जा गालिब का नाम तो आपने सुना ही होगा, उर्दू शायरी और कविताओं के लिए मशहूर शायर मिर्जा गालिब जीवन से जुड़ा एक बेहतरीन साक्ष्य पुरानी दिल्ली में स्थित है। मिर्जा गालिब की हवेली पुरानी दिल्ली की कासिम जान बल्लीमारान नाम के गली में स्थित है। गालिब की शायरी में मोहब्बत का रस उर्दू अल्फाजों का तड़का का एक अलग पहचान है। गालिब की हवेली उसी शायराना अंदाज को बयां करती हैं। गालिब की हवेली की संकरी गली में उनके शायराना अल्फाजों का दीदार होता रहता है। 

हृदय के अनछुए पहलुओं को छू जाने वाली गालिब की शायरियां इस हवेली से गूंजते हुए प्रतीक होती है। गालिब की हवेली वाली गली में एक सुन्दर दरवाजा खुलता है। यह हवेली गालिब की शायरी और मुगल सल्तनत के दौर को याद दिलाती है। इस हवेली को भारतीय पुरातत्व विभाग ने धरोहर के रूप में शामिल कर दिया है।
 
हवेली मुगल सल्तनत के उस दौर को याद दिलाती है जब इसका पतन शुरू हो गया था। गालिब के अल्फाजों और जज्बातों को समझना और महसूस करना हो तो इस हवेली का दीदार एक बार अवश्य करें। हवेली का दीदार होते ही बरबस गालिब का एक शेर याद आ जाता है जिनमें उन्होंने बायां किया है "उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्जा गालिब, हम बयाबान में हैं और घर में बहार आई है।"

हवेली का इतिहास 
लखौरी ईंटों, बालू, पत्थर से बनी इस हवेली का प्रवेश द्वार ड्योढ़ी लकड़ी से बनाया गया है। इसे लकड़ी से बनाने का मुख्य उद्देश्य गालिब की उन शायराना भावनाओं को जिंदा रखना है। गालिब ने अपनी इस हवेली में आगरा से आने के बाद तकरीबन 9 साल यहां गुजारे थे। गालिब ने उर्दू और फारसी में 'दीवान' की रचना इसी हवेली में रहकर किया था। 1999 के बाद सरकार ने इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया साथ ही इसका जीर्णोद्धार कराकर इसे मुग़लकालिन गौरव प्राप्त कराने की भरपुर कोशिस की गई है। गालिब के मौत हो जाने के बाद गालिब के इस महल में 1999 तक बाजार लगता था। वर्तमान समय में ही गालिब के अल्फाजो और उनके शायरियों के हर अनछुए पहलुओं का यहां अवलोकन किया जा सकता है।

हवेली की बनावट और वास्तुकला 
मुगल काल के संस्मरण में बनी कई इमारतों में गालिब की हवेली भी एक है। अन्य मुगलकालीन इमारतों के तरह इस हवेली में भी मुगलकालीन शिल्पकारी और वास्तुकला को प्रदर्शित किया गया है। मिर्जा गालिब की हवेली मुगलकालीन यादगार इमारतों में शामिल हैं। हवेली की एक एक दीवार गालिब और उनके अल्फाजों में सुशोभित करती है। इसे दिल्ली सरकार ने पूरी तरह अपने आश्रय में ले लिया तब इस हवेली को गालिब के म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है।

यहाँ गालिब के इस हवेली में उनके शायराना अंदाज और शायरियों के गुत्थे के साथ कई चीजें नत्थी कर सहेज कर रखी गई हैं। यहां गालिब की किताबों के साथ-साथ कई कविताएं भी सहेज के रखी गई हैं। गालिब हुक्के के शौकीन थे। शायरियों के संग्रह और संकलन में हुक्का भी उनके अल्फाजों को पोषण देता था। यही कारण है कि हवेली में गालिब का स्वरूप बना कर उनके हाथों में हुक्का पकड़ा कर बैठाया गया है। यकीनन इतनी बेहतरीन कारीगिरी की गयी है कि आप एक बार के लिए भ्रमित हो जाएंगे कि ये एक जिंदा आदमी है या सिर्फ मौन तस्वीर है। गालिब हवेली के चारों कोनों से गालिब के अल्फाजों के एक-एक शब्द मानो सुनाई देते हैं और हृदय को सुकून मिलता है। 

शायरी के शौकीनों के लिए हवेली किसी जन्नत से कम नहीं है। हवेली में गालिब के अलावा उनके समकालीनों का भी पोर्ट्रेट लगा है, जिसमें उस्ताद जौक, अबू जफ़र और मोमिन मुख्य हैं। हवेली में लगी मशहूर शायर मिर्जा गालिब की प्रतिमा का अनावरण मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिसंबर 2010 में किया था।इसे मसहूर मूर्तिकार  राम पूरे ने बनाया है। यहां भ्रमण करना शायरियों के हर पहलुओं को महसूस करना मुगलकालीन वस्तुओं का अवलोकन करना किसी बड़े पर्यटन क्षेत्रों के सुकून से कम नहीं है।

हवेली पर पहुंचने का समय 
पुरानी दिल्ली में स्थित गालिब की यह हवेली सूर्योदय से सूर्यास्त खुली रहती है। खास बात यह है कि इसमें कोई प्रवेश शुल्क नहीं लगता यहां प्रवेश निशुल्क है। अन्य राष्ट्रीय इमारतों की तरह यह  हवेली भी सोमवार को बंद रहती है। यहां फोटो खींचने पर कोई प्रतिबंध या विशेष शुल्क नहीं लिया जाता है। हवेली पर पहुंचने के सबसे नजदीक मेट्रो स्टेशन चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन है। दिल्ली के सुशोभित इमारतों में गालिब की हवेली का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है।