जानिए एक ऐसा ऐतिहासिक खंडहर जिसका नाम खून खराबा भरे इतिहास के कारण अतिरंजिखेड़ा पड़ा

पुरातत्व और प्राचीन इतिहास से लबरेज भारत को अद्भुत संस्कृति की जननी कहा जाता है। इसकी पहचान प्राचीन संस्कृति इतिहास से प्रेरित है। भारत के वैश्विक आकर्षण में प्राचीन ऐतिहासिक धरोहर, पुरातात्विक स्थल, पर्यटन की दृष्टि से खास स्थान रखते हैं।

यहां के प्राचीन ऐतिहासिक खंडहर, आस्था के प्रतीक मंदिरों के अवशेष, ज्ञान शिला के प्रतीक शिक्षण संस्थानों के खंडहर आज भी पर्यटन के क्षेत्र में अपने आकर्षित इतिहास से सैलानियों को अपनी ओर आकर्षण कर लेते हैं। इन्हीं ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थलो में अतिरंजीखेड़ा का भी नाम शामिल है। यह भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के एटा जिले से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पतित पावनी माता गंगा के क्षेत्र में स्थित यह स्थल अब मरुस्थल-सा वीरान पड़ा है। ऐतिहासिक जगत में अपना नाम बनाने वाले इस स्थल को देखने आज भी दूर दराज से लोग आते हैं।

अतिरंजीखेड़ा का आकर्षण 

अतिरंजीखेड़ा 3960 फुट लंबे और 1500 फूट चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। वर्तमान समय में इस वीरान स्थान पर पूरातात्विक खंडहरों के अलावा कुछ देखने को नहीं मिलता। इतिहास का पुराना आकर्षण आज भी यहां मौजूद है। जिसके आकर्षण पर पूरी दुनिया फिदा थी। यहाँ टेरा कोटा के कुछ टुकड़े हैं, जो पूरे टीले में फैले हुए हैं। माना जाता है कि पहले कभी राजा बेन का किला यहां पर हुआ करता था। राजा के पहले यहां आदिमानव का निवास था। यह प्राचीन वीरान शहर इतिहास के कई गहरे अध्याय को स्वयं में समेट लिया है। लोहे पिघलाने की भट्ठियां, तांबे के बर्तन, मुद्रा और, गेरुआ रंग के बर्तन यहाँ बड़े पैमाने पर तब मिले जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी द्वारा 1962 में उत्खनन करया गया। इतना ही नहीं प्राचीन इतिहास की गुप्तकालीन मूर्तियां, ताम्बे के सिक्के, पत्थर के टैग, देवी देवताओं के चित्र, और फूल पत्तियां, भाले एवं ईटों के टुकड़े बड़ी संख्या में इतिहास के कई साक्ष्य मिले। इतिहास के पन्ने में विलीन यहां के साक्ष्य कोलकाता, दिल्ली, मथुरा, लखनऊ के संग्रहालयों में देखें जा सकते है।

अतिरंजिखेड़ा का इतिहास 

अतिरंजिखेड़ा अब इतिहास के पन्नों में दफन हो चुका है। 630 ईसवी में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां पहुंचा था। बौद्ध स्थलों की खोज में निकला ह्वेनसांग भटकते-भटकते अतिरंजीखेड़ा पहुंच गया। इतिहासकारों के अनुसार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जनक कहे जाने वाले अलेक्जेंडर कनिंघम ने सन 1865 में इस जगह को पहली बार देखा था। अतिरंजिखेड़ा का इतिहास राजा बेल और मुहम्मद गोरी के कन्नौज आक्रमण से जुड़ा हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार राजा बेन ने मुहम्मद गौरी को कन्नौज आक्रमण के समय परास्त किया था। इस हार से परेशान गौरी ने राजा बेन से बदला लेने के फिराक में जुट गया।

कुछ दिनों के बाद गौरी ने अपने सेनाओं के साथ राजा बेन के अतिरंजीखेड़ा स्थित किले पर चढ़ाई करके राजा बेन को मात दे दिया। इस भयंकर युद्ध में राजा बेन के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। युद्ध में राजा बेन की मृत्यु हो जाने के बाद किले पर युद्ध विजेता गौरी ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया और इस किले को खंडित कर दिया। माना जाता है कि इसी युद्ध में मुहम्मद गौरी के राजगुरु उलेमा हजरत हुसैन को मारा गया था। खून खराबे भरे इतिहास के कारण इस स्थान को अतिरंजीखेड़ा कहा जाता है। जहां अति का अर्थ अत्यधिक और रंज का अर्थ शत्रुता से है। वर्तमान समय में इस स्थान पर उलेमा हजरत हुसैन के नाम पर एक मजार है। जो इतिहास के उस भयंकर युद्ध याद दिलाता रहता है। इस मजार की पूजा हिन्दू, मुस्लिम परंपरागत तरीके से करते हैं।

अतिरंजीखेड़ा के आस-पास का आकर्षण

यहाँ से कुछ पग पैदल चलते ही बौद्ध बिहार के दर्शन होते हैं। यहाँ चार स्तुप बलुआ पत्थर से बने हुए हैं। मान्यताओं के अनुसार इन चारों स्तूपों का निर्माण सम्राट अशोक द्वारा कराया गया था। 84 हजार स्तुपों में ये भी अशोक के स्तुपो में शामिल है। स्थानीय लोगों का कहना है कि यह भगवान बुद्ध ने धर्म प्रचार के समय तीन माह इसी स्थान पर होकर के गुजारे थे।